– ‘ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ‘ का जप एवं विष्णु सहस्त्रनाम का पाठ करना बहुत फलदायी
एकादशी तिथि की शुरुआत 20 जनवरी को शाम 07 बजकर 27 मिनट से हो रही है। इस तिथि का समापन 21 जनवरी सायं 07 बजकर 28 मिनट पर होगा। इसीलिए उदयातिथि के अनुसार 21 जनवरी को पौष पुत्रदा एकादशी व्रत रखा जाएगा।
शास्त्रों में पौष माह के शुक्लपक्ष की एकादशी को पुत्रदा एकादशी बताया गया है। इस दिन जगत के पालनहार भगवान श्री विष्णुजी की विधि-विधान से पूजा करने का विधान है। इस बार पुत्रदा एकादशी बहुत शुभ संयोग लेकर आ रही है, जो समृद्धिदायक होगा. इस एकादशी पर व्रत करने वालों को मां लक्ष्मी और नारायण का आशीर्वाद प्राप्त होगा. एकादशी पाप कर्मों से मुक्ति दिलाने वाला व्रत है.
इसके प्रताप से हर संकट दूर होता है, श्रीहरि की कृपा से सारे दोष खत्म हो जाते हैं और व्यक्ति मृत्यु के बाद मोक्ष को प्राप्त होता है. संतान सुख की कामना के लिए पौष पुत्रदा एकादशी व्रत बहुत खास माना गया है. ऐसे में इस दिन बन रहे दुर्लभ संयोग व्रती की पूजा-व्रत का दोगुना फल प्रदान करेंगे
ऐसे करें श्रीनारायण की पूजा
चराचर प्राणियों सहित समस्त त्रिलोक में एकादशी से बढ़कर दूसरी कोई तिथि नहीं है। इस दिन सृष्टि के पालनकर्ता भगवान श्री नारायण की उपासना करनी चाहिए। रोली,मोली,पीले चन्दन,अक्षत,पीले पुष्प,ऋतुफल,मिष्ठान आदि अर्पित कर धूप-दीप से श्री हरि की आरती उतारकर दीप दान करना चाहिए। इस दिन ‘ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ‘ का जप एवं विष्णु सहस्त्रनाम का पाठ करना बहुत फलदायी है। संतान कामना के लिए इस दिन भगवान कृष्ण के बाल स्वरूप की पूजा की जाती है। योग्य संतान के इच्छुक दंपत्ति प्रातः स्नान के बाद पीले वस्त्र पहनकर पूर्व दिशा की ओर मुख करके भगवान श्रीकृष्ण की पूजा करें। इसके बाद संतान गोपाल मंत्र का जाप करना चाहिए। इस दिन भक्तों को परनिंदा, छल-कपट,लालच,द्धेष की भावनाओं से दूर रहकर,श्री नारायण को ध्यान में रखते हुए भक्तिभाव से उनका भजन करना चाहिए। द्वादशी के दिन ब्राह्मणों को भोजन करवाने के बाद स्वयं भोजन करें।
व्रत की कथा
पूर्वकाल की बात है, भद्रावती पुरी में राजा सुकेतुमान् राज्य करते थे। उनको रानी का नाम चम्पा था। राजा को बहुत समय तक कोई वंशधर पुत्र नहीं प्राप्त हुआ। इसलिए दोनों पति-पत्नी सदा चिंता और शोक में डूबे रहते थे। राजा के पितर उनके दिए हुए जल को बड़े ही शोक के साथ पीते थे और सोचते थे, कि राजा के बाद और कोई ऐसा नहीं दिखायी देता, जो हम लोगों का तर्पण करेगा’ यह सोच-सोचकर पितर दुःखी रहते थे।
एक दिन राजा घोड़े पर सवार हो गहन वन में चले गए। पुरोहित आदि किसी को भी इस बात का पता न था। मृग और पक्षियों से सेवित उस सघन कानन वन में राजा भ्रमण करने लगे। मार्ग में कहीं सियार की बोली सुनाई पड़ती थी तो कहीं उल्लुओं की। जहां-तहां रीछ और मृग दृष्टिगोचर हो रहे थे। इस प्रकार घूम घूमकर राजा वन की शोभा देख रहे थे, इतने में दोपहर हो गया। राजा को भूख और प्यास सताने लगी। वे जल की खोज में इधर-उधर दौड़ने लगे। किसी पुण्य के प्रभाव से उन्हें एक उत्तम सरोवर दिखायी दिया, जिसके समीप मुनियों के बहुत से आश्रम थे। शोभाशाली नरेश ने उन आश्रमों की ओर देखा तो उस समय शुभ की सूचना देने वाले शकुन होने लगे। राजा का दाहिना नेत्र और दाहिना हाथ फड़कने लगा, जो उत्तम फल की सूचना दे रहा था। सरोवर के तट पर बहुत से मुनि वेद-पाठ कर रहे थे। उन्हें देखकर राजा को बड़ा हर्ष हुआ। वे घोड़े से उतरकर मुनियों के सामने खड़े हो गए और पृथक् पृथक् उन सबकी वन्दना करने लगे। ये मुनि उत्तम व्रत का पालन करने वाले थे। तब राजा ने हाथ जोड़कर बारम्बार दण्डवत् किया, तब मुनि बोले- ‘राजन् ! हम लोग तुम पर प्रसन्न है।’
मुनि बोले- राजन् ! हम लोग विश्वेदेव है, यहां स्रान के लिए आए हैं। माघ निकट आया है। आज से पांचवें दिन माघ का स्नान आरम्भ हो जाएगा। आज ही ‘पुत्रदा’ नामकी एकादशी है, जो व्रत करने वाले मनुष्यों को पुत्र देती है।
राजा ने कहा – विश्वेदेवगण ! यदि आप लोग प्रसन्न हैं तो मुझे पुत्र दीजिए। मुनि बोले- राजन् ! आज के ही दिन ‘पुत्रदा’ नामकी एकादशी है। इसका व्रत बहुत विख्यात है। तुम आज इस उत्तम व्रत का पालन करो। महाराज! भगवान् केशव के प्रसाद से तुम्हें अवश्य पुत्र प्राप्त होगा। इस प्रकार उन मुनियों के कहने से राजा ने उत्तम व्रत का पालन किया। महर्षियों के उपदेश के अनुसार विधिपूर्वक पुत्रदा एकादशी का अनुष्ठान किया। फिर द्वादशी को पारण करके मुनियों के चरणों में बारम्बार मस्तक झुकाकर राजा अपने घर आए। तदनन्तर रानी ने गर्भ धारण किया। प्रसवकाल आने पर पुण्यकर्मा राजा को तेजस्वी पुत्र प्राप्त हुआ, जिसने अपने गुणों से पिता को संतुष्ट कर दिया। वह प्रजाओं का पालक हुआ। इसलिए राजन्! ‘पुत्रदा’का उत्तम व्रत ही अवश्य करना चाहिए। मैंने लोगों के हित के लिए तुम्हारे सामने इसका वर्णन किया है। जो मनुष्य एकाग्रचित होकर ‘पुत्रदा’ का व्रत करते हैं, वे इस लोक में पुत्र पाकर मृत्यु के पश्चात स्वर्गगामी होते है। इस माहात्म्य को पढ़ने और सुनने से अग्निष्टोम यज्ञ का फल मिलता है!